काठ का पुतला
काठ का पुतला
आदमी
कितना लाचार
कितना बेबस होता है,
चिंताओं के धुंध में घुटता रहता है,
चंद खुशियों के खातिर
मारा मारा फिरता है,
ढूंढता है खुशियों को
यहां वहां
खुद में
अपनों में,
अपने हर छोटे छोटे
बोझिल पलों में,
पर खुद को
तन्हा
बस खाली पाता है,
वो चाहता है
हर पल को
जीना स्वछंदता से,
पर उलझन मन की कौन समझे
यहां तो दर्द बिखरा है
बेइंतहा उसके इर्द गिर्द,
वो उसी में उलझा
बुनता है ताना बाना,
जिसमे खुद
उलझ गया है,
उसकी खुशियां
उसके गम बंधे हैं
दूसरों के
रहमोकरम पर,
वो तो बस
एक काठ का पुतला है
जिसको हर हाल में
दहन होना है,
दूसरों के हाथों
उनकी इच्छाओं के लिए
ही उसे स्वाहा होना है,
उसका यहां
खुद कुछ नहीं,
वो बस बिका है
दूसरों के लिए,
ख़ुशी
बन कर
सदा।