कातिलों का शहर
कातिलों का शहर
कातिलों के शहर में, कर रहा बशर में
बीतते उम्र के प्रहर में पी रहा जहर में
न कोई उम्मीद बची, न कोई जिंदगी,
न जी रहा, न मर रहा रिश्तों के कहर में
कितना मजबूर हुआ, अपनों के डर में
अक्स को भूला में, आईनों के शहर मे
कातिलों के शहर में, कर रहा बशर में
गम के दरिया में, बन रहा लहर-लहर मे
करूंगा फतेह मे, रखता मजबूत जिगर में
शूलों के लाख शर में, बनूंगा गुलाब घर मे
कभी रहूंगा न अधर में, जीतूंगा हर ग़दर में
सही वक्त पर मारूंगा, सर्पों पे पत्थर में
कातिलों के शहर में, कर रहा भले बशर में
फिर भी नही हूँ, में इनके जैसा दुष्ट नर में
न डरूंगा तम से, बनुगा सूर्य किरण में
हर प्रकार के नुकीले पत्थर से टकराकर में
सदा ही बहता रहुँगा झरना कलकल मे
संकल्प लिया मैंने तकलीफों के पीहर में
में बनूंगा कोहिनूर हर तरफ की डगर मे
हार या जीत का बिल्कुल भय न होगा,
में बनूंगा करण, हर तरफ के जीवन रण में।
