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काश.......

काश.......

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दूर दूर तक

फैली सघन

नीरवता,

निर्जनता,

हड्डियाँ पिघलाती

जलाती धूप।


सूखता कंठ,

मृतप्राय

शिथिल तन से

चूता शोणित स्वेद

अट्टहास करते,

करैत से मरूस्थल

की भयावहता सबकुछ

निगल लेने को आतुर।


परिलक्षित होती तब

मृगमरीचिका,

जिसकी स्पृहा में

निर्निमेष

कुछ खोजता

लालायित मन।


अभिप्रेत लक्ष्य

जो ज्यों ज्यों होता

निकट दृश्यमान

त्यों त्यों

रहता है शेष,

सिकत रेत।


और शेष

होता है,

तो एक

'काश'

और कभी न

मिटने वाली

जन्म जन्मांतर

की मलिन प्यास।


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