ग़ज़ल

ग़ज़ल

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उसकी रहमतों का साया है मुझपर, वो मेहरबान है मेरा

वो जो बैठा है ऊपर, वही पासबान है मेरा

 

नाउम्मीदी ने कभी दस्तक नहीं दी दर मेरे

कामयाबी मेरे कदमों में है ,वो निगहबान है मेरा


कोई ईंट मारे तो प्यार से समझा दो उसे 

फिर भी न समझे तो ,पत्थर ही समाधान है मेरा। 


मैं झंडा मुल्क का अपने कभी झुकने नहीं दूँगा 

वतन से आशनाई ही, तो अब अभिमान है मेरा


चाँद से गुफ्तगू में ही कटती हैं रातें 'सुधा' 

मेरे इस इश्क़ से महबूब ,अनजान है मेरा।



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