काबिल
काबिल
कई अरसों बाद पता चला हम उनके काबिल न थे,
उनके वो पोशीदा इरादे मुनासिब न थे,. . . . .
तमाम वो वादे, वो कसमे, वो रस्मे, वो चाहत, वो उल्फत, वो जज़बात,
सब धोखा था और इस धोखे से हम वाकिफ़ न थे,. . . .
जिस्मो के तलब रखने वाले वो मियां,
महज़ ये एक, दो, तीन, दिल बहलाने वाले उनको काफी न थे,. . . . .
स'आदत से मिली उन्हें मोहब्बत,
पर वो फ़कत मोहब्बत के तालिब न थे,. . . . . .
न समझते हम उनकी मुश्ताकियां,
हम इतने भी जाहिल न थे।

