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Phool Singh

Drama Inspirational

4  

Phool Singh

Drama Inspirational

जयद्रथ वध

जयद्रथ वध

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हतप्रभ रह गए केशव सुनकर

पार्थ ने क्या ये बात कही

प्रतिज्ञा-प्रण क्या सबका शोक है, क्यूँ प्रतिज्ञाओं की युद्ध में झड़ी लगी॥


बिन सोचे क्या किया ये तुमने

क्यूँ-कैसी थी सनक चढ़ी

निर्धारित करते जयद्रथ की मृत्यु, क्या अतीत के उसके ख़बर भी थी॥


पिता के वर से वह शक्तिशाली

हल्के में जिसकी मृत्यु ली

महादेव का भक्त रहा जो, क्यूँ मरण की अपने कथा रची॥


पिता निरंतर ताप है करते

जिसकी साधना ने रक्षा सुत की की

जो भी मारेगा जयद्रथ को, उपहार में मृत्यु अपनी ली॥


प्रायश्चित करता अनुरोध भी करता

बुद्धि वक़्त ने मेरी हरी

त्रुटि हो गई केशव मुझसे, क्रोध में राह न मुझको दिखी॥


कल का सवेरा क्या लायेगा

इसी चिंतन में रात्रि सबकी कटी

कोई युक्ति तो होगी उसकी, ध्यान में माधव के ये बात टिकी॥


ध्यान लगाते युक्ति लगाते

थकान भरी ये रात रही

काल मंडराता दोनों के शीश पर, कैसी महाकाल थी ये लीला रची॥


सूर्योदय हुआ धीरे-धीरे

फ़ैल लालिमा चहूं ओर गई

गुंजाएमान हो गए अनक-दमाम सब, बाहें वीरों की तनती गई॥


गर्जना करते सैनिक चलते

रणभेरी भी दहाड़ उठी

उत्साह उमंग था कौरव दल में, अर्जुन की दिन ढलने तक जान बची॥


कुरुपति ने गुरु द्रोण को

सौंप युद्ध की कमान कसी

चूक रहे न रण में कहीं भी, सरहद जयद्रथ की सुरक्षित की॥


भीषण युद्ध था होने वाला

हर वीर थी हुंकार भरी

अर्जुन को रोकना मुख्य लक्ष्य, जिसकी प्रण की ज्वाला भड़क उठी॥


प्रचारणा करता गर्जन करता

अरिदल की तितर-बितर थी सेना की

सर संधान पार्थ ऐसा करता, त्राहि-त्राहि सब सेना की॥


रोके से भी वह रुक न पाता

बरसने बाणों से अग्नि लगी

कोहराम मचाता विकरालता धरता, ख़ूब त्रस्त वैरी दल देना की॥


अस्त्र-शरत्र चलते सैनिक मरते

दिव्यास्त्रों की होड़ मची

महत्त्वपूर्ण जीवन दो दांव लगे थे, जिन पर सबकी पर आँख गड़ी॥


अग्नि जल कभी कुहरा लाते

सेना गरुड़-भुजंग बाणों की मार सही

कितना देर कोई टिक सकता था, अर्जुन ने थी जब हुंकार भरी॥


केशव जिसके शारथी बने थे

जिनमें गुरु-शिष्य की डोर बंधी

कब तक बकरा खैर मनाता, कट-कटकर सेना गिरने लगी॥


प्रहार का न उसके तोड़ किसी पर

महावीरों की प्रबलता बिखर गई

पार्थ आँधी से तूफान बना था, ऐसी विकरालता उसकी न देखी कभी॥


दिखाई न देता जयद्रथ कहीं भी

शाम भी बेला भी ढलने लगी

ज़ोम बढ़ता वैरी दल का, सबके शिकन माथे पर आने लगी॥


संभावना बढ़ी युद्ध समाप्ति की

केशव ने तब थी माया रची

काले बादल भास्कर ढकते, तैयारी युद्ध समाप्ति की होने लगी॥


मोद मनाते उत्साह में भरते

सरगरमी कुछ बढ़ने लगी

हँसते गाते वैरिदल चलते, चिता अर्जुन की थी तब सजने लगी॥


तानों के संग ख़ूब कटाक्ष है करते

तब केशव के अधरों पर मुस्कान सजी

छिपा जयद्रथ निकल के आया, उसने जब अर्जुन चिताग्नि की बात सुनी॥


माया हटाते सूर्य दिखाते

देख क्रोधाग्नि पार्थ की भड़क उठी

शर संधान वह ऐसा करते, उसकी गर्दन पिता की गोद में जा गिरी॥


तपस्वी पिता-पुत्र का अंत हुआ

शोक में कौरव सेना खड़ी

आशा दिलाते ढांढस बँधाते, जैसे ही अर्जुन ने प्रतिज्ञा पूरी की॥


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