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Prateek Satyarth

Romance

3  

Prateek Satyarth

Romance

जो मैं लिख दूँगा कि...

जो मैं लिख दूँगा कि...

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तुम कहती हो...

कि मुझे कोई तोहफ़ा मत देना...

बस मेरे जन्मदिन पर

मेरे लिए कुछ अच्छा सा लिख देना...


मैं घबराता था, मैं हिचकिचाता था...

तुम्हारी इस फ़रमाइश को पुरजोर टालता था...

क्योंकि सच कहूँ, तो मैं यह जानता था...

कि गर जो लिखने बैठ गया मैं तुमको...


तो रोक न पाऊँगा खुद को...

चल पड़ेगी कलम मेरी,

लिखने तुम्हारी दास्ताँ...

जैसे चल पड़ता है सुनहरी यादों का

एक खूबसूरत कारवाँ...


जो मैं लिख दूँगा कि...

आज के दिन जन्म लेकर...

तुमने इस धरा को

और खूबसूरत कर दिया...

तो तुम्हें लगेगा कि यह अतिश्योक्ति है...


लेकिन फिर मैं तुम्हें

कैसे समझाऊँगा कि...

इंसानों से ही तो

दुनिया खूबसूरत होती है...


जो मैं लिख दूँगा कि...

ऊपर वाले ने तुम्हें बनाते वक्त...

तुम्हारे चेहरे पर जो काला तिल रखा,

वह कतई बेवजह नहीं है...


तो तुम्हें लगेगा कि इसमें

आखिर क्या वजह हो सकती है ?

लेकिन फिर मैं तुम्हें कैसे समझाऊँगा कि...

इतने सुंदर चेहरे को

दुनिया की बुरी नज़र से बचाने के लिए...


नज़र का एक काला टीका तो

ईश्वर को लगाना ही था...

जो मैं लिख दूँगा कि...

तुम्हारी आँखें देखने के बाद...

मैं मयखाने का रस्ता ही भूल गया...


तो तुम्हें लगेगा कि तुम्हारी आँखों का

इस बात से क्या संबंध...

लेकिन फिर मैं तुम्हें

कैसे समझाऊँगा कि...


तुम्हारी इन मदमस्त

नशीली आँखों के सामने...

तो पुरानी से पुरानी शराब भी

पानी माँगती नज़र आती है...


जो मैं लिख दूँगा कि...

काश व्याकरण में अल्प विराम

और पूर्ण विराम जैसी...

कोई बंदिश न होती

तो कितना अच्छा होता...


तो तुम कहोगी कि इससे

तो व्याकरण ही बिखर जाता...

लेकिन फिर मैं तुम्हें कैसे समझाऊँगा कि...

इन विरामों के फ़ेर में आकर...


जो तुम्हारी लगातार बोली जाने वाली

बातों पर विराम लग जाता है...

वो मुझे कतई अच्छा नहीं लगता है...


जो मैं लिख दूँगा कि...

तुम बेइंतेहा खूबसूरत हो...

तो तुम कहोगी कि मैं झूठ बोल रहा हूँ...

तो फिर मैं तुम्हें कैसे समझाऊँगा कि...


झूठ दिमाग से बोला जाता है,

दिल से नहीं...

और तुम्हें देखते ही दिमाग

काम करना बंद कर देता है

और दिल काम करना शुरू...


जो मैं लिख दूँगा कि...

मैं जेठ की तपती दुपहरिया में रहकर भी...

बर्फ़ सी शीतल हवा में

सराबोर होता रहता हूँ...

तो तुम कहोगी कि...


देह झुलसाती इस गर्मी में

तुम्हें ठंडक कहाँ से मिल जाती है...?

तो फ़िर मैं तुम्हें कैसे समझाऊँगा कि...

वक्त-बे-वक्त,

वजह-बिना-वजह जब तुम हँसती हो...


तो यूँ लगता है जैसे

रेगिस्तान में बर्फिली बयार चल पड़ी हो...

और जो अंत में मैं यह लिख दूँगा कि...

मैनें ऊपर जो कुछ भी लिखा,

सब सच लिखा...


तो फ़िर तुम कहोगी कि

तुम बातें बहुत अच्छी बना लेते हो...

तो फ़िर आखिर मैं तुम्हें कैसे समझाऊँगा कि...

उपर मैनें जो कुछ भी लिखा,

वह हाथ से नहीं...


बल्कि अपनी भावनाओं की

स्याही बनाकर दिल से लिखा है...

और मैनें बातें नहीं,

बल्कि रिश्ता बनाना चाहा है...


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