जला देते हैं...
जला देते हैं...
चिराग़ भी कभी कभी
मुहाफ़िज़ का दामन जला देते हैं
ख़्वाहिशें रह जाती हैं और
लोग तन जला देते हैं
बाहर कहीं भटकता रहता है
शायद ये मन उनका
तभी जीते चले जाते हैं
और अपना मन जला देते हैं
मिलता है लुत्फ़ सफ़र में
चलो जब आहिस्ता आहिस्ता
बेताब हो दिवाने क्यूँ
बेवज़ह चिलमन जला देते हैं
भरोसा हो ग़र ख़ुदा का
पनाह देते हैं ग़ैर भी
जब अपने ही अपनों का
नशेमन जला देते हैं
दैरो हरम की तामीर में
कितने गुलों को रौंदते
तितलियों को कर बेघर
सारा गुलशन जला देते हैं
दीनों धर्मगुलशन के नाम पर
खुदगर्ज़ी को पूजते
इंसानियत का क़त्ल कर
चैनो अमन जला देते हैं।