जख़्म -ए- दिल
जख़्म -ए- दिल
डर लगता है, दिल किसी से लगाने से
इंतजार करने से, ख्वाब फिर सजाने से।
हो गये बर्बाद लोग इश्क़ में
न जाना उन गलियों में, बुलाने से।
उभर ही आता है जख्म -ए- दिल मेरा,
दिलों के जख्म नहीं भरते, मरहम लगाने से।
कतरा कतरा बिखर गया है वजूद मेरा
जुड़ता नहीं दिल कभी, टांके लगाने से।
लौट जाना ही मुनासिब है जहां से
कोई उम्मीद नहीं अब, इस जमाने से।