धूप सी तुम
धूप सी तुम
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तुम धूप हो
अपनी मर्ज़ी से
आती हो
और अपनी मर्ज़ी से
चली जाती हो।
अच्छा लगता है
कभी गुनगुनी धूप
में बैठना
और कभी कभी
कर देता हूँ खुद को
छांव के हवाले।
जलाने लगती है
कभी तपिश तेरी
फिर भी तेरे बिना
मेरी हर सुबह अधूरी।
चाहा, तुझे बांध लूं मुट्ठी में,
पर क्या कोई मुट्ठी
तुझे बांध पाई है?