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सीमा शर्मा सृजिता

Abstract Tragedy

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सीमा शर्मा सृजिता

Abstract Tragedy

जिस्म और पैसा

जिस्म और पैसा

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वह बेचती जिस्म और लेती पैसा

लोग खरीदते जिस्म 

और देते पैसा 


पेट की भूख जब सताती 

वह बेचती जिस्म 

जिस्म की भूख जब तड़पाती 

वे खरीदते जिस्म 


बेचना उसकी मजबूरी रही 

खरीदना उनका शौक 

वह कहलाई नापाक 

वे बने रहे एकदम पाक


वह बेचती सरेआम 

वे खरीदते छुपकर 

वह बेचती निडर 

वे खरीदते डर -डर


उसका घर गंदा रहा 

उसके घर जाने वाले रहे साफ

वह कीचड़ कहलाई 

कीचड़ में नहाने वाले रहे साफ 


दिन में समाज उसे दूर भगाता

रात को समाज उसके घर जाता 

दिन में समाज जात -पात देखता 

रात में समाज सेकुलर बन जाता 


उसने बेचा जिस्म 

उसका घर कहलाया कोठा 

उन्होंने खरीदे जिस्म 

उनका घर बना रहा कोठी 


उसके कोठे पर जन्म लेती

 अक्सर उनकी संतानें 

जिन्हें वे नहीं मानते अपना 

जिन्हें वे बुलाते गंदगी 


वह बूढी़ हो जाती 

वे रहते जवान 

वह अब नहीं भाती

वे ढूढंते नई दुकान 


वे नई दुकान पर जाते 

खरीदते नये जिस्म

ताजा - ताजा जिस्म 

देते डबल पैसा 


इस बार बेचने वाली

होती उनकी ही कोई अपनी 

वे जानते ये सच 

फिर भी खरीदते जिस्म 

देते पैसा, लुटाते खूब पैसा।


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