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Manoj Sharma

Abstract

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Manoj Sharma

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ज़िन्दगी

ज़िन्दगी

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दरवाज़े के पीछे छिप कर

    चुप चाप खड़ी है ज़िन्दगी......

बहुत ज़ियादा किसी बात पर

    कल रात लड़ी है ज़िन्दगी......


लहू सिस्कियां और ख़रोंचें

    पूछ रहे हैं अपना मज़हब......

इस मन्दिर से उस मस्ज़िद तक

    हर बार लुटी है ज़िन्दगी......


अपनी इक ज़िद की ख़ातिर 

    फिर ना लौटा मैं जिस दर......

अपनी इक ज़िद की ख़ातिर 

    उसी द्वार खड़ी है ज़िन्दगी......


नाव निकालूं पतवार संभालूं

    सोच रहा उस पार चलूं......

बहोत दिनों से ढूंढ रहा हूँ

    इस पार नहीं है ज़िन्दगी......

          


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