जिंदगी।
जिंदगी।
जिंदगी क्या है ,अभी तक मैं समझ ना पाया।
कभी खुशी ,कभी गम ,इस में ही समय बिताया।।
हर समय, हर जगह सभी को मशगूल ही पाया।
अपनी अंतर वेदना का हल कहीं ढूँढ न पाया।।
कुछ अच्छा कर सकूँ, यही सोच, समय गवाया।
देख दुनिया का नजारा ,मुझ को नहीं भाया।।
संचित करना, अपने स्वार्थ हित, सबको है पाया।
पल भर की खबर नहीं, यही सोच मन घबराया।।
मानव अमूल्य जीवन यूँ , व्यर्थ ही बिताया।
आ न सका किसी काम, क्यों यह जीवन है पाया।।
अन्तरदृष्टि खोल दो भगवान, हर किसी में तू ही समाया।
"नीरज"को सिर्फ तुम्हारी चाहत, जो मेरे मन को है भाया।।
