ज़िन्दगी
ज़िन्दगी
ख्वाहिशों को साथ लेकर चला था,
पर यहाँ तो पहचान ही मिटती गई,
ख्वाइशों की चादर बड़ी होती गई,
सपने टूटते गए जिंदगी खोती गई,
हर पल, हर घड़ी बस दौड़ रहा हूँ,
और ज़िन्दगी की शाम ढलती गई,
चलता रहा कारवाँ निकलता गया,
हर मोड़ पर तन्हाईयाँ मिलती गई,
वज़ूद भी कहीं खो चुका सफ़र में,
ज़िंदगी हर पल यहाँ बिखरती गई,
मैं फँसता गया जिंदगी के खेल में,
और वो नित नया खेल रचती गई,
रूक ज़रा यहाँ कब तक दौड़ेगा तू,
जिंदगी बार-बार मुझसे कहती गई,
समेट ना सका मैं ख्वाहिशें मुट्ठी में,
और ज़िन्दगी हरपल सिमटती गई।