ज़िंदगी जीने की
ज़िंदगी जीने की
ज़िंदगी जीने की होती है जो क़ीमत समझो।
मौत के दाम तो सस्ती है शहादत समझो।
यूँ तो क़िस्मत से बँधी रहती है बरकत अपनी,
गरचे मेहनत से बँधी रहती है क़िस्मत समझो,
अहल-ए-वहशत पे तबस्सुम को न करना ज़ाया,
इनसे सँभली है न सँभलेगी ये दौलत समझो।
ढूँढते हो कहाँ भगवान को इंसानों में,
इन में इंसान मिले तो भी ग़नीमत समझो।
या तो महबूब बनाएँगे तुम्हें या तो ख़ुदा,
गर मुहब्बत न समझ पाओ इबादत समझो।
आदतों में न करो अपनी 'नवा' को शामिल,
जो न छूटे कभी ये है वो बुरी लत समझो।