ग़ज़ल : जब सुब्ह हुई आई...
ग़ज़ल : जब सुब्ह हुई आई...


जब सुब्ह हुई आई जब साँझ ढली आई
है याद तेरी तुझ सी बेबाक चली आई ।
था बे-नुमू सा मुझ में इक पौधा मोहब्बत का ,
ये मो'जिज़ा है तेरा जो इस पे कली आई ।
एहसान हवा का है बेकल मेरी साँसों पे ,
ख़ुशबू तेरे दामन की ले कर ये चली आई ।
आवाज़ तेरी रुन-झुन पायल की हो जैसे धुन,
बातों में तेरी घुल के मिस्री की डली आई ।
रफ़्तार अचानक ही धड़कन की बढ़ी जाए ,
ये दिल का इशारा है अब तेरी गली आई ।
क्यों शाम लगा आई वो सुर्ख़ तेरी बिंदी ,
और हाथों में ये तेरी मेहंदी भी मली आई ।
रुख़्सार पे है लाली माथे पे पसीना है ,
ले रूप तेरा ले के अब सुब्ह चली आई ।