ग़ज़ल : कौन साँसों से...
ग़ज़ल : कौन साँसों से...
कौन साँसों से उजालों को बचा पाया है।
जब भी देखा है चराग़ों को बुझा पाया है।
फिर से इक टीस उठी फिर से टटोला ख़ुद को,
फिर पुराना कोई इक ज़ख़्म खुला पाया है।
आज फिर आँख ने इक आग छुपाई शब भर,
आज फिर सुबह ने इक ख़्वाब जला पाया है।
जाने कैसे वो बढ़ाता रहा ख़ुद को मुझ में,
जाने कैसे वो मुझे मुझ में घटा पाया है।
अपनी उर्यानी पे इक जिस्म का कोहरा ओढ़ा,
और हर शय को फिर उस से ही ढका पाया है।
मैं ने माँगा न था ख़ालिक़ से शुऊर-ए-हस्ती,
मैं ने चाहा न था जो उसका सिला पाया है।
एक वो शख़्स जो मुझ में है मुख़ालिफ़ मेरा,
बस वही शख़्स है जो मुझ से निभा पाया है।