जीवन और इच्छायें
जीवन और इच्छायें
भौतिकता के इस बदलते दौर में,
आधुनिकता के मौजूदा शोर में ;
नित नयी इच्छायें पनपती हैं।
पूरी होती नहीं ढंग से पहली,
आ जाती दूजी की छवि नयी नवेली;
फिर मन-मष्तिष्क पर छा जाती है।।
मानव मन इच्छाओं से कब भरता है,
उन्हें पूरी करने को कर्म उल्टे-सीधे करता है;
अब वह नरक और यमराज से भी नहीं डरता है।
अपनों को कुछ समझता नहीं,
अपनापन तो शायद वह खो चुका कहीं;
फिर गैरों की आजमाइश करता है।
चाहता नहीं कोई कांटों पर चलना,
सीढ़ी दर सीढ़ी मंजिल तक जाना;
बिन मेहनत सफलता तुरंत चाहते हैं।
चाहता नहीं कोई नियम कायदे में रहना,
संस्कार और परिपाटी को ढो़ना;
फिर भी इच्छा-पूर्ति शतप्रतिशत चाहते हैं।