मजदूर
मजदूर
न जाने किस हाड़ मांस का बना है मजदूर,
सर्दी-गर्मी सब रहती है उससे दूर।
रूखा-सूखा खाकर रहता है मगरूर,
अपनी ही मस्ती में चूर।
दो वक्त की रोटी है उसका सरूर,
ना चाहे वाहवाही नहीं होना उसे मशहूर।
लोगों के महल बनाता खुद रहता विलासिता से दूर,
हाथ जोड़ कर सबको कहता जी, हुजूर।
भव्य बंगलों में रहने वाले,
मजदूर का खून चूसने वाले।
बात-बात में गाली और लात मारने वाले,
गोरे - चिकने दिखने वाले।
मन के हैं काले,
ये सब हैं मजदूर का हक डकारने वाले।
दिखते नहीं इनको मजदूर के हाथों के छाले,
छीनने में रहते हैं हरदम मजदूर के निवाले।
आओ अब मिलकर मजदूर को बचायें,
साक्षरता की अलख जायें।
कोई उसका शोषण न कर पाये,
मजदूर को उसका हक दिलायें।
शोषण करने वालों को जेल की हवा खिलायें,
ऐसा सार्थक मजदूर दिवस मनायें।