जीरों से बन रही गिनतियां हैं
जीरों से बन रही गिनतियां हैं
कहां उठी है रण में तलवार,
कहां दुखी है जग में भगवान।
वीरों को ठग रही नीतियां हैं,
जीरो से बन रही गिनतियां हैं।
कितनों में देख लिया साहस,
कहां लड़ी जंग में लड़ाईयां हैं।
मंच लगाये बैठे हैं सत्ता को खैरात लुटाने को,
कहां खुश होता आत्मदाह बैसाखी मनाने को।
यहां वहां की अठखेलियां सुनाते हैं,
खुद नहीं बदले बदलते जमाने को हैं।
देखो यही चीत्कार हमारी व्यथा है,
शहीदों को समर्पित हमारी कविता है।
