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Shailaja Bhattad

Romance

5.0  

Shailaja Bhattad

Romance

जीने का हक

जीने का हक

1 min
250


ख़्वाबों में, ख्यालों में रहती थी कभी

पलकों पर मेरी तुम सजती रही

बादलों में खो गई हो अब कहीं

है गुज़ारिश इतनी सी,

अनजान न बन जाना,

राहों में गर मिल जाओ कहीं।


सुकून का सिलसिला न रहा अब

रूठना, मनाना, वादे निभाना

कल सा हो गया सब।

सपना बुना था जो मिलकर,

सपना ही रह गया अब।

हकीक़त में रहती थी जो ,

खयालों में ही सिमट कर

रह गई हो अब।


 न बहका था मैं तभी।

 न बहका हूं अभी।

 मायूसी का साया छाया नहीं कभी।

 धुआँ -धुआँ न हुई जिंदगी अभी।


न शिकवा न शिकायत अब तुमसे

न दस्तूर है कोई निभाना अब से

तुम रहो सुकून की छांव में

न कश्मकश निगाह में। 


समझाता हूं खुद को

समझौता नहीं है जिंदगी

जीने के हक से,

जीना है जिंदगी।


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