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Khushbu Gupta

Tragedy

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Khushbu Gupta

Tragedy

झूठी हँसी(वृद्ध)

झूठी हँसी(वृद्ध)

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अक्सर याद आता है 

वो शक़्स जो चारपाई के सिरहाने बैठा

हुक़्क़े की धुएँ में फेफड़े को 

हवा दे रहा होता है ..........

अक्सर याद आता है

उसके बदन पे मानो कुछ

सिलवटों का पहरा उभर आया हो

आँखों की फ़लक पे काले गहरे रंग के

कुछ धब्बे सा दिखने लगा हो

कभी उठता,कभी सो जाता हो

कभी खुद में ही खो जाता हो

इक सामान सा हर वक्त वही पड़ा रहता है

जिसकी जरूरत अब किसी को नही थी

फिर भी वो अपनी ज़िद में लड़खड़ा के 

खड़ा हो रहा था......


इक रोज तो वो गिरते गिरते बचा

>पर चंद ख़रोंच ने आँखों को नम कर दिया

और सिमट बिस्तर में उस रोज वो पड़ा रहा

सोचा कोई तो इधर से गुजरेगा

मेरे इक कतरे सा खून देख घबरायेगा

सुबह से शाम, शाम से रात हो गयी

उस डगर से गुजरा नही कोई

सब है सब की आवाज़े कानों में पड़ रही थी


वो पिंकी वो राजू की झड़प लग रही थी

वो बहु बेटे की आहट भी हो रही थी

और रात धीरे धीरे ढल रही थी

दीये की लौ मानो कम हो रही थी

वो बाती तेल की कमी से जल रही थी

फिर भी वो अपनी जिंदगी को जिये जा रहा था

अपने होठों पे झूठी हँसी लिए दफ़न हो रहा था।।



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