माँ गंगा
माँ गंगा
गंगा भी हूँ, पावन भी हूँ
मैं तो देवी रूप धरा की
देवों में मनमोहक मैं हूँ
इंसाँ को मोक्ष दायनी हूँ।
मैं सुरलोक में रहती थी
अब पृथ्वी की मैं वासी हूँ
गंगा भी हूँ, पावन भी हूँ।
मैं तो देवी रूप धरा की
शिव ने धारण किया जटा में
मैं वो गंगा की धारा हूँ।
पतित-पावनी मुझे बना के
खुद से ही शिव ने दूर किया
शीतल जल की शहजादी जितनी
उतनी ही गहराई में हूँ।
गंगा भी हूँ, पावन भी हूँ।
मैं तो देवी रूप धरा की
पृथ्वी लोक के वासी
मैं ही जीवन दायनी हूँ।
तन को धोती, मन को धोती
नदी-नाले को अंक भरती हूँ
शांत कभी ना बैठी मैं तो
निर्झर ही बहती रहती हूँ।
गंगोत्री से उद्गम हुई हूँ
गंगासागर में समाई हूँ
उत्तराखण्ड की गढ़वाल में
भागीरथी भी कहलाती हूँ।
गंगा भी हूँ, पावन भी हूँ
मैं तो देवी रूप धरा की।।