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Sunita B Pandya

Abstract

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Sunita B Pandya

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जगद जननी अंबे माँ

जगद जननी अंबे माँ

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अंधेरी रात्रि के बाद खिली है सोनेरी सवार

दो होंठ खुले हैं तब निकला है शब्द "माँ "

फर्क रखती नहीं माँ, फिक्र करती हैं "माँ "

राही का सड़क माँ, भटके का सबक "माँ"

सिंहवाहिनी माँ, त्रिशूलधारी हैं माँ

गदाधारी हैं माँ, मेरा आधार हैं माँ

शस्त्रधारी हैं माँ, शास्त्रों से पर हैं माँ

नारायणी है तू, मेरी माँ डी है तू

सच्चे की रक्षा है तू, झूठे की शिक्षा है तू

    

तेरे नाम से ही मेरा काम बना माँ

दास हूं मैं तेरा, मेरी आस बन माँ

मेरी आस है तू , मेरे आसपास है तू

भरोसा कर सकूँ मैं जहां पे ऐसे इन्सान बना

मतभेद न रखने वाली, मतभेद को मिटा

अंबे है तू, जगदंबे है तू

 

हिम्मत देनेवाली कीमत करना सिखा माँ

सच को स्वीकार सकूँ मैं ऐसी समझ दे माँ

टीका में तक ढूंढू मैं ऐसे सदविचार दे माँ

अनेक जुड़ कर बने है एक, उस एक को

अनेक होने से बचा

कड़वे के गुण और मीठे के अवगुण

परखना सीखा

      

भूल जाएं अपने तो, उसको याद दिला माँ

दिखावे वालो से नज़रअंदाज़ करना सिखा, 

श्रद्धा और अंधश्रद्धा में फर्क करना सिखा

हीरे को परख पाऊं मैं एसी बाज नजर बना माँ

तकरार हो अगर तो तक का लाभ न उठाऊँ मैं


आज़ाद पंछी हूं मैं, खुला आसमान है तू माँ

अनेक निराशा की बस एक ही आशा तू माँ

कल की परवाह करनेवाली कलम बन तू माँ

कलम न चले तो हथियार बन तू माँ

कलाकार की कला को दिल तक पहुंचा

कवयित्री की कल्पना को साकार कर दे तू माँ

      

पूर्णिमा का दिन है, पूर्ण कर विनती , 

पूर्णिमा की तरह चेहरा आज खिला दे माँ     



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