जाओ अब
जाओ अब
रोना भी नहीं आ रहा
दर्द खो गया
ढूंढ कर देखा कोना कोना
टटोल कर झाड़ कर
बाकी कुछ न रहा।
घूरती छत,
चार दीवारों का साथ
धीरे धीरे गहराती रात
ख़ामोश होती सिसकियां
यूं ही सब खत्म होता।
सब्र का विस्तार
जो था तारों के पार ,
सिकुड़ कर आंगन में आ गया।
सामने नहीं अब कोई भी ,
तुम भी चले जाओ।
