जामुनी शाम
जामुनी शाम
आज शाम की जामुनी रंगीनियाँ
कुछ कह रही है कानों में गुनगुनाती
मादक रस छलकाती !
मैख़ाने की दहलीज़ से जो
बहती है एक नशीली गंध
वो कुछ कुछ तुम्हारी साँसों से
बहती बहका जाती है !
हाँ ये तुम्हारे लबों पर
ठहरे तील की सरगोशियाँ
मेरी नस-नस में खुमार जगाती
करीब लाती है तुम्हारी ओर खींचती,
मेरी ऊँगलियों को तुम्हारे गेसू से
खेलने की दावत देती !
ए मल्लिका ए हुश्न है बंदे को
इजाज़त गर रुख़सार को
चुमती लटें सँवार दूँ !
जरा नज़दीकीयाँ बढ़ाओ
एक लहजे से उठती तुम्हारी पलकों पर
<p>बैठी हया की चिलमन हटा लूँ तो
शाम चले अपनी हल्की रफ्तार पर !
रूप की रोशनी से रश्मियाँ
रुपहली छलकती है
तुम्हारे तन की परत से
कुछ-कुछ चाँदनी के साये सी !
तुम्हारी नासिका से बहती
संदल सी महकती साँसे
टकराती हैं मेरे वजूद को
नशेमन में बहकाती !
ए हुश्नवाले रहम की इल्तिजा है
इश्क को बहा ले जाती है
आँधी तुम्हारी देह की
नाजुक नज़ाकत की !
"सुनो सनम"
मैं अपनी हर एक साँस
आज इस गुलाबी
शाम के नाम करुँ
मेरे सीने पे सर रखकर
पंखुड़ियों सी जो
बरस जाओ मुझ पर।