इंतज़ार
इंतज़ार


वो जो दरवाजे पर है बैठी जैसे जिंदगी हो उससे रूठी
आँखें है सुनसान राहों को तकतीजैसे किसी की बाट हो तकती
जिंदगी के इस पडा़व में देख सब चुके रंगीले सपने है
तभी शायद आँखों के नीचे झुर्रियाँ अपनी दुनिया बसाए बैठे हैं
जिंदगी की आधी सी ज्यादा उम्र चीड़ की लकडि़यों को काट कर बीत चुकी है
छरहरी कोमल काया अब झुकी हुई कमर में बदल चुकी है
बाहर थोड़ी सी हलचल होने परलाठी लिए दरवाजे पर आ जाती है
चूल्हे के धुएँ से जमी तस्वीर को धोती के पल्लू से साफ करती है
जब भी कभी पडो़सी के घर से डाकिए के आने की खबर मिलती है
मोतियाबिंद से ग्रसित हो चुकी आँखों में ना जाने क्यों एक चमक सी आ जाती है
और फिर ना जाने क्यों उसकी धीमी चाल तेज हो जाती है
पहाड़ों की टेढी़-मेढी़ पगडंडी भीउसके लिए परदेस की सड़क बन जाती है
डाकिए से मिलने के बाद खुशी की लकीरें मिट चुकी होती है
ना जाने किस हाल में होगा बेटा सोचकर माथे पर शिकन की लकीरें आ जाती है
जब भी कभी खेत के काम पूरे कर दिन का खाना खाने बैठती है
बेटे ने खाना खाया होगा या नहीं सोचकर निवाला गले से नहीं उतारती है
हाँ, वो माँ है माँ ही तो हैं कल भी इंतजार करती थीऔर आज भी इंतजार करती है
तुम सब जो पहाड़ों की शांति और सुंदरता को देखते हो
जरा गौर फरमाइयेगा उस माँ पर भी जो अशांत मन से दरवाजे पर टकटकी लगाए रहती है
ये तुम सब जो बाहर सेवादियों की खूबसूरती देखते हो ना
पर तुम सब नहीं देख पातेउन सूख चुकी आँखों का इंतजार
ये तुम्हें जो ऊँचे-ऊँचे पहाड़ शांति से खडे़ दिखाई देते हैं ना
दरअसल ये सब अंदर सेखोखले और बेबुनियाद होते जा रहे हैं
माँ जिसका जन्म इन पहाड़ों में हुआ कल शायद वो इसी मिट्टी में मिल जाए
पर शायद ही खत्म हो पाए उसकी आँखों का वो इंतजार!