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इक निराश युवक

इक निराश युवक

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नौकरियाँ है कहाँ,

15 लाख है कहाँ,

5 साल अब बीतने को है,

बोलो पचास दिन गये कहाँ।


वो काला धन का वादा,

वो अच्छे दिन का सपना,

वो गोली थी बाहर से मीठी,

पर अन्दर से कितनी खट्टी।


नोटेबंदी ने मारी,

जी.एस.टी. ने कमर तोड़ी,

योजनाएँ तो बहुत दिये,

बस अच्छे दिन नहीं दिये।


केरल पानी में डूब गया

तो मदद के लिए संकोच किया।

3,000 करोड़ एक मूर्ति को दिया,

वाह-रे-वाह, क्या काम किया।


अब अदालती भी खफा है,

और हमारी तो बस पूछो ही मत।

2019 अब आने को है,

अब तुम फिर जुमला सुनाना मत।


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