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Shailaja Bhattad

Abstract

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Shailaja Bhattad

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हवा की चाह

हवा की चाह

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हवा की चाह में धूप भी गंवा रहे। 

जिंदगी की राह में उलझने बढ़ा रहें। 

हैं नहीं जो तेरा, मिला नहीं जो तुझे।

व्यर्थ ही जता रहे। 

हवा की चाह में धूप भी गंवा रहे।


प्रतिशोध में ही ताप को बढ़ा रहे। 

किस मंतव्य से खुद को यूं जला रहे। 

मन को भी व्यर्थ ही सता रहे। 

दुर्गति में खुद को ही ले जा रहे। 

हवा की चाह में धूप भी गंवा रहे।


मंजर विकट है गर जान गए। 

हालात से हाथ क्यों मिला रहे। 

संदेह में क्यों जिंदगी बिता रहे। 

सरेआम क्यों नहीं बता रहे।

क्यों खुद को ही छला रहे। 

हवा की चाह में धूप भी गंवा रहे।


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