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शेख रहमत अली "बस्तवी"

Romance

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शेख रहमत अली "बस्तवी"

Romance

"हूर कहीं से आई थी"

"हूर कहीं से आई थी"

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एक रोज सपने में मेरे

हूर कहीं से आई थी, 

चाँद चमकता चेहरा उसका

खूब मुझे ललचाई थी। 

काली-काली भौहों वाली

नयन कटीले बान, 

नील कमल सी कोमल काया

चंचल थी मुस्कान, 

चलती थी ऐसे बलखाकर

चाल बड़ी मतवाली थी, 

धरे गगरिया पनघट जाती

सखियों से इठलाती थी। 

दिल दे बैठा था मैं उसको

हुआ बड़ा हैरान, 

आठ पहर सोते जगते बस

उसका ही गुणगान। 

प्रेम की दो बातें करता जब

वो मुझसे इतराती थी, 

मुझे बसाकर मन मंदिर में

मन ही मन शरमाती थी। 

सुबह-शाम मेरे होठों पर

रहते उसके नाम, 

जी करता न्योछावर कर दूं

धन-दौलत या जान। 

घुंघराले बालों में अजब की

इंद्र धनुष बन जाती थी, 

होंठो की मधुशाला उसकी

मुझको पास बुलाती थी। 

नींद खुली जब होश में आया

सारे सपने चूर हुए, 

सपनों की शहज़ादी मेरी

पल भर में ही दूर हुई। 



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