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शेख रहमत अली "बस्तवी"

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शेख रहमत अली "बस्तवी"

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दिखावे की मोहब्बत

दिखावे की मोहब्बत

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काम की बातें थे करते 

जाम उनको चाहिये, 

मज़हबी नफ़रत फैलाकर 

नाम उनको चाहिये। 


हमने है माना कि वो 

तक़रीर अच्छी करते हैं, 

महफ़िलों की वाह-वाही 

शान उनको चाहिये। 


अपनी नाक़ामी छुपाना 

कोई उनसे सीख ले, 

दूसरों का नाम बस 

बदनाम उनको चाहिये। 


सरबराही में उन्हीं के 

रोज़ होतीं मजलिशें, 

मजलिशों में धूम वाली 

शाम उनको चाहिये। 


दुस्मनों के भी गले 

लग जाते हैं ख़ुदगर्जी में, 

रिश्ते नाते दुस्मनी 

ग़ुमनाम उनको चाहिये। 


काम में मशरूफ़ अपनी 

नाम के लोभी हैं वो, 

दुनियाँ भर में हो अलग 

पहचान उनको चाहिये। 


बंद आँखों से क़ुबूली 

कर ले उनकी बात जो, 

अंध भक्ति में मुब्तिला 

अवाम उनको चाहिये। 


आज "रहमत" लिख रहे 

फ़िर उन्हीं की शान में, 

दर महीनें इक न इक 

उड़ान उनको चाहिये।


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