किसान
किसान
सुबह निकलता कन्धे हल रखकर
दो बैलों की जोड़ी लेकर
चलता है वह मचल-मचल कर
देखो कितना बलवान है न
दिल का सच्चा नेक इंसान है न
सच में ये किसान है न
बंजर भूमि उपजाऊ बनाये
मिट्टी में हर रोज़ नहाये
खून पसीना ख़ूब बहाये
जैसे खेत खलिहान है न
यही तो भारत की शान है न
सच में ये किसान है न
आलस तनिक न तन के अंदर
भय न कभी भी मन के अंदर
कोई विपदा ग़र आ जाये
फ़िर भी चेहरे पर मुस्कान है न
बुद्धी, विवेक,और ज्ञान है न
सच में ये किसान है न
फ़टे कपड़ों में लिपटा रहता
यही देश की अर्थव्यवस्ता
धरती का सीना चीर के ये
पैदा करता गेहूँ-धान है न
हर भारतीय की जान है न
सच में ये किसान है न
सारा जहाँ इसकी मेहनत से खाता
यही हम सभी का है अन्नदाता
खेत, फसल, पशु से है नाता
पर फ़िर भी ये ग़ुमनाम है न
"रहमत" कितना महान है न
सच में ये किसान है न।