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हुंकार

हुंकार

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हम भी कुछ लिखना

चाहते हैं,

कुछ बोलना

चाहते हैं,


कुछ करने की भी

अभिलाषा,

ह्रदय में हमने पाल रखी है !


कहने को तो हम

कहते हैं,

जो हमें भाता नहीं,

जो ह्रदय को भेदता है,

उसे कभी रखते नहीं !


पर हमारे अरण्यरोदन

बेबसी के जालों में उलझते

रह गए,


हमें लगता है कि

हम मूक बधिरों की टोलियों में,

सिमटकर रह गए !


ना कोई सुनने वाला है,

ना कोई पढ़ने वाला है,

किसे हैं वक्त कुछ कहने का ?

लटकते मुंह पे ताला है !


जहाँ देखो

तहाँ निशब्द

हम यूँ ही पड़े हैं,

किन्तु हम आवाज के

इतने धनी हैं,


आज हमारी बातें

भले कानों में ना रेंगे,

कल कोई गांडीवधारी

आ के रण में,

हुंकार करके

महाभारत ना रच दे !


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