क्रोध
क्रोध
जो अग्नि जैसे धूप में भी रहकर
विचलित न होता हो,
जो दुखोंं में न घबराता हो,
सुखोंं में भी अत्यधिक
उत्साहित न होता हो,
वो भय तथा क्रोध से
अवश्य ही मुक्त है।
वो स्थिर मन वाला है
वो स्वयं पर काबू रखता है
वो कभी क्रोधी नहीं हो सकता है।
जो अपने ज्ञानेंद्रियों पर
चिंतन नहीं करता है
उस मनुष्य को
अपने जीवन में
आसक्ति उत्पन्न हो जाती है
और आसक्ति उत्पन्न होने के
वजह ही मनुष्य को क्रोध
घेरता है।
जो मनुष्य सूर्य के समय को
नहीं भापता है, समय पर अपना
पूर्ण कार्य नहीं करता है,
उस मनुष्य को क्रोध का
मोह उत्पन्न होता है,
इससे स्मरण शक्ति का विभ्रम
हो जाता है।
स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है
तो बुद्धि नष्ठ हो जाती है, बुद्धि
नष्ट होने पर मनुष्य अग्नि रूपी
क्रोध में तपने लगता है।
खुद को भवकूप में
गिरा देता है।
मनुष्य के जीवन के
पतन का दो द्वार है।
1.क्रोध 2.लोभ
मनुष्य को चाहिए
वो इसे त्याग दे।
इससे मनुष्य की शारीरिक
तथा मानसिक पतन होता है।
