अगर
अगर
हाथों की लकीरों से मेरी बगावत ना होती
हाथों पर है यक़ीं वरना हिम्मत ना होती
बटवारे के बाद भी बटता रहा मेरा मुल्क
पडोसियोंकी वरना इतनी जुर्रत ना होती
मैं कर लेता उसे पाने की कोशिश अगर
महज दिलकशी होती, मोहब्बत ना होती
अपने बाप से भी करू पलटकर सवाल
हैं उन्हीं की तालीम वरना जुर्रत ना होती
उम्र कट गयी तेरे ग़म में, खुदाया शुक्र है
ग़म-ए-दहर से वरना मेरी निजात ना होती
हाथ जोड़कर मांग लेता नेमतें हजार
बंदगी मेरी अगर मेरी गैरत ना होती
तू आप को सक्षम शायर मानता अगर
ग़ालिब पढ़ने की तुझे आदत ना होती।
