केलेंडर
केलेंडर
बीते सालों के पुराने केलेंडर देखे है ?
बेतरतीब मोड़े हुये झुर्रियो भरे साल,
सालों में जर्द पड़े महीनों के पन्ने,
पन्नों की तारीखों पे तरह तरह के दाग छींटे,
छींटे धूल के, स्याही के, तेल, पसीने के।
उन तारीखों के खानों पें गोदा होता है गया वक्त
छोटे छोटे नोट्स, मोटे मोटे आंकड़े
घोबी का हिसाब, दुधवाले के नागे,
सालगिरह, उपवास के रिमाइंडर्स,
जल्दबाजी में लिखे गये फ़ोन नंबर्स,
छुट्टियों के गिर्द बने गोल-गोल घेरे ,
बिगड़े पेन से खींची टेढ़ी-मेढ़ी लकीरे,
ग्रहण के दिन और पूनम की रातें
हाशिये पे लिखी, लिखकर कर काटी हुयी बातें
बरस बीत जाते है, कैलेंडर पे छूट जाते हैं
बीते बरसों के निशां।
कुछ बहुत स्पष्ट और बहुत से अस्पष्ट निशां।
पिछली जुलाई में चालीस पूरे हो गये
आइने में चेहरा किसी पुराने
केलेंडर सा लगता हैं अब।
