हथेली पर ताजमहल
हथेली पर ताजमहल
हथेली पर रखा ताजमहल का नन्हा सा प्रतिरूप,
याद दिलाता है मुझे, तुम्हारे पाषाण हृदय की,
जो आज भी मेरा प्यार अपने आप में छिपाए बैठा है.
न मुक्त कर सका मुझे,न अपने आप को,
आज भी आस का नन्हा सा दिया जलाये बैठा है.
ताजमहल की दीवारों के झरोखों से झाँकता प्रकाश,
जगाता है मन में मेरे, आशा की एक किरण, कि,
आओगी मेरे पास तुम
चाहे एक क्षण के लिए ही सही,
वह क्षण कितना मधुर होगा, जिसकी आस में,
हथेली पर ताजमहल का नन्हा सा प्रतिरूप
लिए बैठा हूँ मैं... अकेला... तनहा.
तनहाइयों के ये पल कितने मसरूफ़ रहते हैं?
आने-जाने वाली यादों की आवभगत में,
कि...वक़्त गुज़र जाता है,पता भी नहीं चलता,
सुबह से शाम हो जाती है और
शाम का यह नन्हा सा दिया
जलाने लगता है मुझे फिर से,
शमा के परवाने की तरह।