हर हुनर रखती हूँ
हर हुनर रखती हूँ
मीठा ही निकलेगा मुँह से जब तक
सामने से शहद की बारिश बरसेगी
छंट जाएगा, घुल जाएगा वो मीठा झरना
जब चारों दिशाओं से नीम रस की
नदियाँ बहेगी
एक मासूम दिल की नाव तैरती है
स्त्री के अस्तित्व के समंदर में
चंदन बन के समिध सी सुगंधित
भी ठहरी
खुद प्रेम हूँ
समूची सृष्टि को गले लगा लूँ
प्रेम की चरम जो पाऊँ
प्रताड़ना की इंतेहाँ से काँपती
आग भी उगलूँ जब उलाहनों
से रौंदी जाऊँ,
मत समझना कमज़ोर, बेबस, लाचार
स्त्री के ज़हन में एक नागिन भी बसती है
फुंफकार तो जानूँ ही जानूँ
शहद की परत के नीचे विष को भी
छुपाना जानूँ
डसने की फितरत नहीं
सताई जाऊँ तब कुचलने
का हुनर भी जानूँ।।
