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Vikas Sharma Daksh

Abstract

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Vikas Sharma Daksh

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हिसाब-किताब

हिसाब-किताब

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इश्क़ में हिसाब-किताब मिलता कहाँ है,

सब खर्च है, कुछ हासिल बचता कहाँ है।


नफ़ा नज़र नहीं आया होगा मुहब्बत में,

बिकता हूँ यहाँ, वो मुझे खरीदता कहाँ है।


ताउम्र नुक्सान उठाये हैं इस कारोबार में,

सट्टेबाज़ हुआ है दिल, ये संभलता कहाँ है।


इश्क़ के टेड़े खेल का है इक सीधा उसूल,

देखता जा कि पासा उल्टा पड़ता कहाँ है।


गर्दिशे-वक़्त में भी इक ठहरी हुई सी सोच,

इन ख्यालों सा तू खला में भटकता कहाँ है।


मुनासिब कीमत ना लगेगी तेरे किरदार की,

अपने हक़ के लिए दिल लड़-मरता कहाँ है।


'दक्ष' खूब कमाया है रंज-ओ-ग़म ज़माने से,

वरना दर्दे-दिल इस भाव निकलता कहाँ है।


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