है पर मेरा नहीं
है पर मेरा नहीं
अनायास ही मन भावों से भरा हुआ है
नीरस नयन सुभग ने दरिया का रूप लिया है
आँगन जिसमें बीता था बचपन
गिरते और सम्भलते सीखा था
जहाँ बढ़ना जीवन पथ पर
है आज भी पर मेरा नहीं।
वो जो सर्दियों की छुट्टियों में
बेपरवाह देर तक सोते थे
और अक्सर,
नाश्ता भी रजाई में ही कर लेते थे
वो बेफिक्री की गर्माहट से भरी रजाई
है आज भी पर मेरा नहीं।
जून महीने की वो चिलचिलाती धूप
और पिछले दरवाज़े से छुपकर निकल जाना
फिर बिताना दोपहरी आम के बगीचों में
एक पेड़ से दूसरे पेड़ तक की उछल कूद
है आज भी पर मेरा नहीं ।।
पूछता जो कोई कि घर किसका है
खड़े होते थे जिस चौखट पर तन कर
और कहते थे कि "घर मेरा है "
है आज भी पर मेरा नहीं ।।