हाय! रे इतवार
हाय! रे इतवार
हाय! रे इतवार तू आता है हर इतवार क्यों।
आके मुझ ग़रीब पर करता है अत्याचार क्यों।
कम थे क्या कुछ दिन वो बाकी सोम से शनिवार तक
आ गया जो तू भी अब करने को मुझ पर वार यों।
रोज़ मरता हूँ मैं दफ्तर में यही दिन काट कर।
आएगा इतवार तो सोऊंगा चद्दर तान कर।
न कोई दफ्तर की किचकिच ना तो घर के काम हो।
दोपहर तक बिस्तरों पर मैं हूँ और आराम हो।
हाय ! पर किस्मत मेरी घर में मेरी जो बॉस है।
वो तो दफ्तर के बड़े बाबू से भी हाई क्लास है।
कहती है हफ्ते में मेरी छह दिनों की ड्यूटी है।
आज है इतवार जानूँ आज मेरी छुट्टी है।
घर के पर्दे,चादरें,बच्चों के कपड़े धोता हूँ।
फिर किचन में खाने की तैयारियों में लगता हूँ।
खाना बर्तन करके हां आराम थोड़ा करता हूँ
शाम को संग बीवी बच्चे घूमने निकलता हूँ।
यूँ ही हर इतवार को कटता है दिन इतवार का
अब कहो कैसे करूँ मैं इंतज़ार इतवार का।
