हाथो की लकीरों में कुछ नहीं
हाथो की लकीरों में कुछ नहीं
हर बार सोचा कह दूं कि जीने की तमन्ना नहीं
पर तेरे पास आ के मेरे होंठ कुछ कहते नहीं ,
मरना अब आसान लगता है मुझे क्यों कि
अब जीने की तो तमना मुझ में बची ही नहीं ।
आसमान मेरे सर के ऊपर लेकिन क्या करें
सूरज की एक भी किरण मेरी सर पर नहीं ,
साथी बना लिया था हमने रात को अपना
मगर अब तो सितारे भी मेरा साथ देते नहीं।
न तुम मिल सके और खुदा के हो न सके
दोनों में से एक भी आज मेरे साथ नहीं,
दोनों के ही दर थे बस एक ही गली में
कहा पहले जाऊं बस यह सोच पाए नहीं ।
लड़ते ही रहे हम रोज अपने मुक़द्दर से
मगर मुक़द्दर से हम जीत पाए ही नहीं ,
सोचा था कैद कर लेंगे थोड़ी सी खुशी
फिर पता चला हाथों की लकीरों में कुछ नहीं।