हाथ की लकीरें
हाथ की लकीरें
नहीं पता क्या होता है,
इन हाथ की लकीरों में
अगर पता होता
कोई गरीब ना होता
ना कोई दुआये मांगता
किसी के सामने हाथ फैलाता
ना समझ पा रही हूँ,
लकीरों की रेखाओं को
कहीं काटती,
कहीं जोड़ती है
लगता सब कुछ अच्छा होगा
लकीरे ऐसी भी होती
कहीं चाँद अपने महबूब को मिला रही
नहीं पता ...
कहीं तिरछी रेखा
कहीं भाग्य महलों, कोठरी
देखकर इन रेखाओं को
मैं मुस्कुराती हूँ !
जब मिल जायेंगी मुझे मंज़िल
आपको बताऊंगी जरूर
कहा था बचपन में
मेरे पापा ने मेरी लाडो
खूब पड़ेगी लिखेंगी आगे भड़ेगी
मैं सोचती रही
जो भी होगा अच्छा ही होगा
वक्त के सामने किसकी चलती भी कहाँ है
अगर रेखा ही सब कुछ होती साहिब
कभी कोई गरीब भूखा प्यासा
ना भटक भटक कर मर रहा होता
ना पता....
तुम भरोसा मत करना
हाथ की लकीरों में
जिनके हाथ नही होते
उनकी भी किस्मत चमती है !