लम्हें ज़िन्दगी के
लम्हें ज़िन्दगी के
सुबह स्कूल जाकर शाम को वापस आती हूँ
बच्ची -बच्चों के संग, बैठ-बैठ कर संग बच्ची बन जाती हूँ।
लंच रखा रह जाता है मेरा, मैं बच्चों का ही लंच खाती हूँ,
बिना लंच जो आये बच्चे, उन्हें अपना लंच खिलाती हूँ।
मैडम दीदी और जो भी मुझसे कहते बच्चे,
दिखते हैं बहुत नादान, मगर मन के लगते है अच्छे।
लिखना पढ़ना शुरू कराती ,एक एक अक्षर पढ़ाती हूँ,
अ से अनार, आ से आम, खुद बच्चों के साथ
मैं पढ़ लिख जाती हूँ।
बच्चों को देख बच्चों के संग, अपने दोस्तों को याद करती हूँ,
बच्चों से दोस्ती कर खुद, उनकी दोस्त बन जाती हूँ।
देखकर बच्चों को यूं खेलते, याद आता है मुझे अपना बचपन का बो वक्त सुहाना,
बिना मतलब के थे दोस्त मेरे,
जिनसे मैं, कभी रूठती थी कभी उन्हें मनाती थी,
यही है मेरे बचपन के दिन....