गज़ल
गज़ल
यूँ ही सोचती हूँ अपनी ख़ल्वत में,
कि जिसने चाहा अपनी खुदगर्ज़ी से चाहा,
रहमत से ना मिले तो किसी अर्ज़ी से चाहा,
किसने पूछा शौक़ क्या हैं हमारे,
और किसने हमें हमारी मर्ज़ी से चाहा।
ये दुनिया दिखाती रही अपनी बेवफाइयों को,
मोहब्बत पार क्या ही करती आशनाईयों को,
करीब आकर मसाफ़त भी क्या खूब बनाई सबने,
रहम की गुजारिश ना थी कहीं...
उफ्फ़! सबने हमें बड़ी बेदर्दी से चाहा।
हम हँसते हैं यूँ ही दुनिया के इस बेरंग रंग को देखकर,
महरूम हम रह गए मोहब्बत से बदले में बेपनाह मोहब्बत देकर,
रुसवा नहीं हम किस्मत से अपनी लेकिन ताज़्जुब जरूर है,
कि ऐसा कोई ना हुआ जिसने हमें हमदर्दी से चाहा।
