गूँज- बारिश का गुबार
गूँज- बारिश का गुबार
आसमान ने आज फिर मेरे दिल का गुबार निकाला है,
मेरे आसुओं को हर पलकों पर बिछा डाला है।
गीली बूंदों की साज़िश थी या नादानी मेरी ही,
की मिटटी की दीवारों पर तस्वीर बना रखी थी उसकी।
रंग मेरे प्यार का घुल गया उन बौछारों में,
पर गुज़रा जिस गली से भी पुर्ज़ा-पुर्ज़ा महका गया।
शीषम ने भी सिसकते लड़खड़ाते उड़ते हुए
ख़ुमार ब्यान करना था चाहा,
पर बेदर्द थपेड़े उड़ा के फेक गए दूर उसे भी कहीं।
जूनून की हद तो तब हुई की उसी गीली मिटटी को पकड़े,
फिर मज़बूर दिल मेहबूब को तराशने में जुट गया,
ना बारिश का रोष ना तूफ़ान का ज़लज़ला रोक पाया,
बेबस उँगलियाँ ठहर गयी उसी पल,
जब हथेलियों में अचानक जेब से
माशूक का टूटा घुँघरू गिर आया।