गुरू एक सहायक।
गुरू एक सहायक।
मानुष तन देकर तुमने, परम अनुग्रह मुझ पर कर दीना।
मूढ़मति बन जीवन काटा, पाप गठरी सिर पर धर लीना।।
जीवन की हर एक सांस तेरी, कहता फिरता मेरी-मेरी।
जो भी मुख से तुमको भजते, आत्मानुभूति वह हैं करते।।
पाप-पुण्य की भाषा न जानी, करता रहा नित अपनी मनमानी।
संचित कर्मों से भाग्य उपजता, सुख-शांति की चाह न करता।।
जीवन का असली ध्येय न जाना, आत्म स्वार्थ का जामा पहना।
नित देखत औरन को दोषा, भूल बैठा आपन संतोषा।।
बिगड़े भाव सुधर न पाते, भव-सागर बीच पैर लड़खड़ाते।
मुझ अनाथ का तुम एक सहारा, सूझत अब न कोई हमारा।।
करुणा सिन्धु तुम कृपा तो कीजै, आत्म-
शांति का वर तो दीजै।।
हार गया हूं अपने जीवन से, खैर-खबर अब मेरी तो लीजै।।
चाहत नहीं कुछ और पाने की, राह देखत तुम्हरे आने की।
"नीरज" के गुरु एक सहायक, फिकर नहीं अब लाज जाने की।।