गुरु - नमन शत बार
गुरु - नमन शत बार
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हे गुरु !
अनुकरणीय हो तुम
अति आकर्षक है तुम्हारा
यह रूप
चाहत थी
बन जाऊँ तुम्हारा ही
प्रतिबिम्ब
लोभ यह
संवरण करना
था अति कठिन।
किन्तु
सिखाया है
तुमने ही
अनुकरण नहीं
करना अनुसरण गुरु का
कर लेना आत्मसात
उसकी प्रज्ञा को
उसके बोध को
उसकी समझ को
ढल नहीं जाना
व्यक्तित्व में उसके
न करना नक़ल
उसके क्रिया-कलापों का
सागर की बूँद नहीं
बनना मोती सीप का
न बनो प्रतिच्छाया मेरी
अनूठे हो तुम
है सबसे अलग अस्तित्व तुम्हारा।
विश्व तुम्हें मेरा शिष्य
इसलिए नहीं समझे कि
तुम मेरे जैसे हो
बल्कि
मेरी पहचान हो जाए
तुम्हारे गुरु के रूप में
तुम्हारा स्वतंत्र अस्तित्व
तुम्हारा अनोखा व्यक्तित्व
देख कर।
सिखाया है
तुमने ही
करना सिंहासन मेरा हासिल
लक्ष्य नहीं
बनाना अपना साम्राज्य
अपनी कला,
अपने बल से
हो ध्येय परम
हो खड़े पैरों पे अपने
न हो अवलंब गुरु का
उतर सकते खरे कसौटी पे
शिष्य कहला सकते सच्चे तभी हमारे।
हे गुरु !
रहस्यमय यह संसार
ज्ञान का अतुल भंडार
खोल दिए पट तुमने
झाँक सकूँ मैं
पार
अंतर्दृष्टि की प्रदान
कर सकूँ भेद
ग्राह्य
और
त्यज्य में
छू सकूँ ऊँचाइयाँ
जीवन में
पा सकूँ संतुष्टि
कर्म-रण में
बन सकूँ विशिष्ट
भीड़ भरे कोलाहल में
फहरा सकूँ पताका
ख्याति का जहान में
नमन शत बार
हे गुरु
नमन शत बार !