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गुजरात की गाथा (गरवी गुजरात)

गुजरात की गाथा (गरवी गुजरात)

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यह कविता गुजरातियों के जीवन, भाषा, स्वभाव, संगीत और स्वाद को ध्यान में रखते हुए लिखी गई हैं ‌। सभी गुजरातियों को समर्पित एक भावनात्मक, रंगीन और जीवन्त कविता का स्वारूप प्रधान करने का प्रयास किया गया हैं।


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"गुजरात की गाथा"
   (गरवी गुजरात)

सूरज जहां उगता है,
रेशमी रेत की छाप पे,
गरबें की ताल पे
थिरकती जो शान से।
गुजरात वो धरती है, 
जहां रंगों की बौछार हैं,
जहाँ हर दिलों में बसता
 कोई व्यापार हैं।

कच्छ से लेकर 
सूरत तलक,
बोली बदले जैसे 
मौसम की हलक।
कहीं "केम छो?" की मिठास बहे,
तो कहीं "हूं छूं भाई!" हँसी संग कहे।

अहमदाबाद की बोली 
ठहराव में,
"हूं छूं, मजामा छूं" 
हर भाव में।
राजकोट की बात अलग,
बड़ी ही मस्ती से,
"तमे आवो छो ने!"
कहें चाय की प्याली में हंसी से।

भुज की बोली जैसे
लोकगीत हैं कोई,
धीमे सुरों में बंधी 
संस्कृति की परछाई होई।
सौराष्ट्र के लोग –
सीधे, सच्चे, थोड़े सुस्त
पर दिल से करे प्यार 
हर पल रहे मस्त।

आलस्य भी है, 
पर प्रेम से रंगा,
धीरे चलना मगर, 
रिश्तों संग बंधा।
दोपहर की झपकी, 
गरम हवाओं में लिपटी,
बिना किसी हड़बड़ी के,
जिंदगी मिठास में सिपटी।

खानपान की बात 
जो छेड़ी,
तो रसोई बन जाए
जैसे स्वर्ग की सीढ़ी।
कभी ढोकला, थेपला,
हांडवो, खाखरा,
फाफड़ा-जलेबी का संग –
ज्यों साज और तानपुरा।

उंधियू की खुशबू, 
केसर आम की मिठास,
मसाला चाय में छिपा
संवाद का अहसास।
खट्टा-मीठा स्वाद,
जैसे जीवन का दर्शन,
हर थाली में कहानी, 
हर पकवान में अपनापन।

भ्रमणप्रियता में भी 
कोई कम नहीं,
छुट्टी मिली नहीं कि
चल दिए कहीं।
माउंट आबू से केरल तक,
गोवा से कन्याकुमारी,
हर जगह में गुजराती,
जैसे मौसम की यारी।

और संगीत! ओह!
क्या बात है!
डायरों, भजन,
गरबा, तिप्पाणी
ताल पे थिरकते शब्दों 
की लहरें बनी।
कला के धनी, 
संस्कृति के प्रहरी,
लोकगीतों में है उनके 
गांव की गहरी नमी।

गुजरातियों की 
बात निराली,
हर मुस्कान में छिपी 
एक लंबी कहानी।
व्यापार उनका धर्म,
संस्कृति उनकी जान,
हर दिलों में बसा, 
"जय जय गरवी गुजरात"
का गान।

जय भारत, जय गुजरात।।




स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित रचना लेखक :- कवि काव्यांश "यथार्थ"
              विरमगांव, गुजरात।


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