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Rahul Singh

Abstract Tragedy

4.5  

Rahul Singh

Abstract Tragedy

गरीबी

गरीबी

2 mins
505


पैसे ने खड़े कर दिए दीवार धनवान और निर्धन का

मेहनत- मजदूरी से चलता घर उनका

परिंदे भी शाम होने पर अपने बसेरे लौट कर आ जाते है

पर कई इंसान ऐसे भी है, जिनके घर नहीं होते है

है वो हालात के आगे इस कदर मजबूर क्यों ?

है वो हालात के आगे आखिर इस कदर मजबूर क्यों ?


अमीर आलीशान मकान बनाता रहा

और वह मकान के लिए तरसता रहा

अमीर अपनी जेबें भरता रहा

और वह रोटी के लिए तरसता रहा

अमीर के सर पे कोहीनूर के सरताज़ सजता रहा

और वह तपती धूप में नंगे पांव दौड़ता रहा

अमीर अपनी गोदाम भरता रहा

और वह रोटी के लिए दर-दर भटकता रहा

अमीर महंगी-महंगी पोशाक खरीदता रहा

और वह एक ही जोड़ी कपड़ों से तन की लाज बचाता रहा

अमीर के मकान वह बनाता रहा 

और वह खुद के मकान के लिए राहें ताकता रहा

अमीर अपनी बेटी की आलीशान शादी करता रहा

और वह लोगों के आगे हाथ फैलाता रहा

है वो हालात के आगे इस कदर मजबूर क्यों ?

है वो हालात के आगे आखिर इस कदर मजबूर क्यों ?


इंसान वो भी है,

दुख और दर्द उनके भी हैं

हम सब की तरह उपरवाले के सन्तान वह भी है

वह हर रोज़ पीसता रहा

पर ज़माना नजरंदाज करता रहा

खुशियां तो हर कोई बांट लेता है

पर उनका ग़म कोई बांटता नहीं है

भूल बैठे हैं सारे समृद्ध इंसान

वो भी हमारे जैसे ही इंसान

देख कर अनदेखा कर देता है उन्हें नजाने जग क्यों ?

है वो हालात के आगे इस कदर मजबूर क्यों ?

है वो हालात के आगे आखिर इस कदर मजबूर क्यों ?


है दुआ मेरी !

गरीबी हर लो प्रभु

सोचता हूँ जब कल मैं उठूँ, एक ऐसी सुबह हो

जहाँ गरीबी का नामोनिशान न हो  



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